आजादी के गुमनाम नायक (Top 5 Unsung Freedom Fighters of India)

Unsung Freedom Fighters of India आजादी के गुमनाम नायक, गुमनाम स्वतंत्रता सेनानी, गुमनाम हीरो, स्वतंत्रता आंदोलन के अनसुने नायक निबंध  (Unsung Heroes of Freedom Struggle, Unsung heroes of India essay)

दोस्तों, जल्द ही स्वतंत्रता दिवस आनेवाला है। ये दिन हम सभी भारतीयों को स्वतंत्रता संग्राम और उन वीर बांकुरों की याद दिलाता है जिन्होंने देशहित के लिए अपने जीवन की आहुति दे दी। एक बात तो स्पष्ट है, आज़ादी न ही एक दिन में मिली और ना ही किसी एक व्यक्ति विशेष के परिश्रम से। आज जो हम इस बहुमूल्य स्वतंत्रता का अनुभव कर पा रहे हैं, वो स्वतंत्रता सदियों की तपस्या और समर्पण का प्रतीक है। 

दोस्तों, आज़ादी की लड़ाई में न जाने कितने देश दीवानों ने अपने जीवन का त्याग किया है। इनमें से कुछ सेनानियों की जीवनियां हम सभी के मानस पटल पर अंकित हैं, जबकि कुछ गाथाएं प्रकाश  में नहीं आई। आज के इस लेख को हमने आज़ादी के गुमनाम नायकों  (Unsung Freedom Fighters of India) को समर्पित किया है। यहां आपको कुछ ऐसे सेनानियों के बारे में बताएंगे जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में बहुमूल्य योगदान दिया है। आपसे अनुरोध है कि विस्तृत जानकारी के लिए लेख पूरा पढ़ें।

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Unsung Freedom Fighters of India

सूर्यसेन

सूर्यसेन को मास्टर दा के नाम से भी जाना जाता है। मास्टर दा पेशे से एक अध्यापक थे। सूर्यसेन अंग्रेजों के लिए खौफ का दूसरा नाम हुआ करते थे। बांग्लादेश में जन्में सूर्यसेन युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय थे। उन्होंने युगांतर पार्टी नामक एक दल बनाया था। अंग्रेजों को धूल चटाने के लिए सूर्यसेन ने गुर्रिला युद्ध की मदद ली। तब गुर्रिला तकनीक अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बन गई थी। 23 दिसंबर 1923 को इन्होंने चटगांव में असम बंगाल रेलवे की ट्रेजरी ऑफिस को लूट लिया था। Unsung Freedom Fighters of India

अंग्रेज़ी हुकूमत के लिए ये घटना किसी तूफान से कम नहीं थी। इस घटना के बाद अंग्रेज़ सूर्यसन को पागलों की तरह ढूंढने लगे। दोस्तों, दुख की बात ये है कि सूर्यसेन अपने एक दोस्त नेत्रसेन की गद्दारी के चलते अंग्रेजों के कब्जे में आए। अंग्रेज़ी हुकूमत ने उन्हें असनीय पीड़ा दी। उन्हें दिल दहलाने वाली यातनाएं दी गईं। सूर्यसेन को बेहोशी में ही फांसी दे दी गई थी। उनकी मृत्यु के बाद उनका शव बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया गया था। 

बाघा जतिन

बाघा जतिन बंगाल प्रेसीडेंसी में कुश्तिया जन्मे थे। इनका पूरा नाम जतीन्द्रनाथ मुखर्जी (Unsung Freedom Fighters of India) था। बाघा जतिन ने अपनी पढ़ाई कलकत्ता विश्वविद्यालय से की थी। आगे चल कर जतिन क्रांतिकारिक संगठन जुगांतर पार्टी से जुड़ गए। उन्होंने स्वामी विवेकानंद, श्री अरबिंदो आदि के साथ काम किया। आपको बता दें कि बाघा जतिन बचपन से ही काफी हिम्मती थे। एक बार उनका सामना एक बाघ से हुआ, जिसे उन्होंने मार गिराया। इस घटना के बाद उनका नाम “बाघा जतिन” पड़ा।

जतिन एक महान क्रांतिकारी थे। उन्होंने अंग्रेज़ी सत्ता के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की। “पूर्ण स्वराज” की प्राप्ति उनका एकमात्र उद्देश्य था। दोस्तों, साल 1908 में बंगाल में अलीपुर बम प्रकरण में कई क्रांतिकारियों को आरोपित किया गया। लेकिन इसमें बाघा जतिन बच गए। इसके बाद उन्होंने गुप्त तरीके से क्रांतिकारियों को संगठित करना शुरू किया। इसी सब में साल 1910 में पुलिस ने उन्हें जेल भेजा, पर उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत न मिलने से बाघा जतिन को छोड़ना पड़ा।

बाघा जतिन का प्रभावशाली व्यक्तित्व अंग्रेज़ी हुकूमत को खटकने लगा था। 9 सितंबर 1915 को जतिन बालासोर गए। वहां पुलिस और क्रांतिकारियों की मुठभेड़ हुई। इसमें जतिन घायल हो गए। अगले दिन यानि 10 सितंबर को उन्होंने आखरी सांस ली।

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मातंगिनी हज़रा

भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय मातंगिनी की उम्र लगभग 72 वर्ष की थीं, पर उन्होंने इसे किसी रुकावट के तौर पर कभी नहीं आने दिया। जब आंदोलन के दौरान वहाँ के लोगों ने अदालत, थाना, अन्य सरकारी कार्यालयों को नियंत्रण में लेने की योजना बनाई तो मातंगिनी (Unsung Freedom Fighters of India) ने वीरता दिखाते हुए उस जुलूस का नेतृत्व किया।

29 सितंबर सन 1942 को लोगों ने पुलिस लाइन को कब्जे में लेने का सोचा तब मातंगिनी उस जुलूस में सबसे आगे रहना चाहती थीं, पर जब पुरुष प्रदर्शनकारियों ने एक महिला के जीवन को संकट में डालने की कोशिश की, तो उन्होंने भी नहीं हारी। वे तिरंगा हाथ में थाम कर रखी थीं। पुलिस ने वहाँ गोलियां बरसाईं, पर मातंगिनी के पैर पर सबसे पहली गोली लगी। लेकिन वे फिर भी आगे बढ़ती गईं। दूसरी गोली उनके हाथों को चोट पहुंचाई, पर तिरंगा फिर भी उनके हाथों से नहीं छूटा। तीसरी गोली उनके सीने पर लगी और इसी तरह भारत माता की बहादुर बेटी उनके चरणों में शहीद हो गईं।

खुदीराम बोस

खुदीराम बोस उन वीर क्रांतिकारियों में से एक हैं जिन्होंने बेहद छोटी सी आयु में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। खुदीराम बोस का जन्म बंगाल के मिदनापुर में हुआ था। बहुत छोटी उम्र में खुदीराम बोस ने अपने माता पिता को खो दिया था। इनकी परवरिश बड़ी बहन ने की। अपने स्कूल के दिनों से ही खुदीराम बोस आंदोलन में सक्रिय हो चुके थे। सत्येन बोस के नेतृत्व में उन्होंने क्रांतिकारी पारी शुरू की।

स्कूल छोड़ने के बाद खुदीराम रेवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने। 30 अप्रैल, 1908 को खुदीराम बोस ने प्रफुल्ल कुमार के साथ किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम फेंका। पर बम गलत जगह गिरा। प्रफुल्ल कुमार ने खुद को गोली मार ली पर खुदीराम को पकड़ा गया। खुदीराम को फांसी की सजा हुई। दोस्तों, खुदीराम ने बड़ी निर्भीकता से फांसी के फंदे को चूमा। उनकी बहादुरी के बारे में उस वक्त के कई पत्रकारों ने लिखा है।

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भिकाजी कामा

भिकाजी कामा विदेशी धरती पर भारतीय ध्वज फहराने वाली पहली क्रांतिकारी थीं। एक बार लंदन की यात्रा के दौरान मैडम कामा श्यामजी कृष्ण वर्मा से मिलीं। श्यामजी से प्रभावित हो कर मैडम कामा ने पेरिस इंडियन सोसाइटी की नींव रखी। साल 1907 ने भिकाजी कामा ने जर्मनी में अंग्रेज़ी उपनिवेशवाद के खिलाफ खूब चर्चा की। इस समय उन्होंने भारतीय ध्वज फहराया था। इस झंडे को मैडम कामा के साथ साथ विनायक दामोदर सावरकर ने बनाया था।

भिकाजी कामा एक परोपकारी महिला थीं। उन्होंने 1896 प्लेग के दौरान मुंबई में कई लोगों की सेवा की। उन्हें ek महान क्रांतिकारी होने के साथ साथ एक समाजसेविका के तौर पर भी जाना जाता है। दोस्तों, भिकाजी कामा की मृत्यु 74 वर्ष की अवस्था में पारसी जनरल अस्पताल में हुई थी।

दोस्तों, उम्मीद है आपको दी गई जानकारियां अच्छी लगी होंगी। ऐसे और भी विषयों पर हमारी साइट पर दिए गए लेखों का लाभ लें।

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