Female Freedom Fighters of India in hindi: क्रांतिकारी महिलाओं के नाम

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भारत की भूमि असंख्य वीर-वीरांगनाओं के अतुल्य बलिदान की साक्षी रही है। देश के प्रति इन बहादुरों का समर्पण आनेवाली पीढ़ी के लिए सदैव ही प्रेरणा का श्रोत बना रहेगा। प्रस्तुत लेख में भारत की कुछ क्रांतिकारी महिलाओं के नाम उनके योगदान की एक छोटी सी झलक दी जा रही है, जिसमें यह बताने की चेष्टा की गई है कि किस प्रकार परतंत्रता की बेड़ियां जब हमारी धरती माँ के सुकोमल पदों को यातना देने में व्यस्त थीं, तब ‘आधुनिक भारत’ के समाजिक झिंगोले की बुनाई करने को कुछ ‘वीरांगनाएँ’ कभी कलम तो कभी खड्ग थामे विषमताओं से दो-दो हाथ कर रहीं थी। तो पाठकों से अनुरोध है कि इस प्रेरणादायक लेख Female Freedom Fighters of India in hindi को अंत तक पढ़ें।

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Female Freedom Fighters of India in hindi

भारत देश में कई क्रांतिकारी महिलाओं का जन्म हुआ है. देश को आजाद कराने के लिए कई महिलाओं ने अपने प्राणों की आहुति भी दे दी थी. भारत देश की प्रथम महिला क्रांतिकारी महिला रानी अवंतिबाई थी. उसके बाद अंग्रेजों से आजादी के लिए और भी कई महिलाएं सामने आई. आज हम आपको ऐसी ही कुछ क्रांतिकारी महिलाओं के बारे में बताने जा रहे है.

सावित्रीबाई फुले (Savitri Bai Phule)

हमारी कलम से अधिक ताकतवर इस धरती पर और कुछ भी नहीं। हम भले ही ना रहे पर हमारे द्वारा बांटा गया ज्ञान सदा ही हमारे अस्तित्व का एक हिस्सा अपने में समेटे रहता है। जब विचारों की नैया को शिक्षा की पतवार खेते जाती है तब वहाँ उद्देश्य का सिंधु बहता जाता है। शिक्षा मनुष्य के जीवन को पूर्ण बनाती है। किसी भी मनुष्य के इस मूल अधिकार का हनन करना किसी अत्याचार से कम नहीं। हमारे देश की प्रथम महिला शिक्षिका का जीवन इसी तथ्य को उजागर करता है। आमतौर पर यह समझा जाता है कि रोटी,कपड़ा और मकान ही मनुष्य के जीवयापन हेतु पर्याप्त होते हैं, परंतु उस जीवन को एक दिशा देने में शिक्षा का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान होता है।

आइए देखें, भारत की प्रथम महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फूले जी ने किस प्रकार नवभारत के समाजिक ढ़ाँचे का निर्माण करने में अपना योगदान दिया। यह कदापि जरूरी नहीं कि देश में क्रांति केवल तलवार से ही लाई जाए। नैतिकता और परमार्थ को अपने जीवन की धुरी बनाने वाला मनुष्य स्वयं किसी क्रांति से कम नहीं होता है।

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 महाराष्ट्र की एक दलित परिवार में जन्मी सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी 1831 में हुआ था। उनका विवाह 9 वर्ष की आयु में 13 वर्षीय ज्योतिबा फुले के संग हुआ। ज्योतिबा फुले प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक थे। क्रांति और समाज सेवा के पथ पर अग्रसर होने का रास्ता उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को भी दिखाया। पति से प्रेरणा पाकर सावित्रीबाई जी भी समाज के कार्यों में रुचि रखने लगीं। उन्होंने अपने जीवन में कुछ लक्ष्य निर्धारित किए थे और उन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए वह सदैव तत्पर रहती थीं। उन लक्ष्यों में विधवाओं की शादी करवाना, छुआछूत मिटाना, स्त्री को समाज में सही स्थान दिलवाना, दलित महिलाओं को शिक्षित करना आदि शामिल था। उस दौर में यह माना जाता था कि शूद्र,अति शूद्र जाति वर्ग के लोगों को पढ़ने का अधिकार नहीं है। इस कारणवश सावित्रीबाई को शिक्षा फैलाने में कई रुकावटों का सामना करना पड़ा। जब एक बार सावित्रीबाई जी बच्चों को पढ़ाने अपनी पाठशाला की ओर जा रही थीं, तभी उन पर गोबर फेंका गया।किन्तु दृढ़ सोच की धनी सावित्रीबाई फुले ने परिस्थिति के आगे घुटने कभी नहीं टेके।

कहा जाता है पाठशाला के लिए जब भी वो निकलतीं, उन पर गोबर फेंका जाता था। पाठशाला आकर वह दूसरी साड़ी पहनतीं और फिर बच्चों को पढ़ातीं। दलित बच्चों को शिक्षा की घूंट पिलाना उनके जीवन का एक मुख्य उद्देश्य था। अपने जन्मदिन 3 जनवरी सन 1848 को सावित्रीबाई ने अलग-अलग जातियों के 9 छात्रों को एकत्रित किया और इस तरह नींव रखी अपनी पाठशाला की। उनका यह साहसिक कदम आज भी प्रासंगिक है और हम इस से शिक्षा ले सकते हैं कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने समाज के उत्थान के लिए सदैव अग्रसर रहना चाहिए। ज्योतिबा फुले ने अपनी पत्नी का भरपूर सहयोग किया और उनके साथ मिलकर अलग-अलग स्थानों पर पाँच और पाठशालाओं को खोला। सावित्रीबाई ने उस काल में दूरदर्शिता का परिचय दिया जब समाज स्त्रियों को सिर्फ चूल्हे-चौके तक ही सीमित रहने के लायक समझता था। अगर हम सावित्रीबाई फुले जी की मराठी में रचित कविताओं को पढ़ेंगे तो हमें ज्ञात होगा कि उन्होंने मेहनत, कर्म,पुरुषार्थ,शिक्षा आदि को  जीवन जीने का महत्वपूर्ण आधार बताया है। महिला सशक्तिकरण की अग्रदूत सावित्रीबाई फुले जी की मृत्यु सन 1897 को हुई। उनकी मृत्यु का कारण प्लेग था। इस रोग से ग्रसित बच्चों की सेवा करते-करते उन्हें भी यह रोग हो गया था। परंतु करुणामई सावित्रीबाई ने कभी अपने हित के बारे में नहीं सोचा। दया,करुणा, परमार्थ इन तत्वों से उनका व्यक्तित्व सदैव अलंकृत रहा। सावित्रीबाई फुले जी का जीवन इस बात का द्योतक है कि क्रांति मस्तिष्क में होनी चाहिए तभी समाज का उत्थान हो सकेगा। उन्होंने अपनी क्षमता का समुचित लाभ उठाकर समाज में योगदान दिया। इसके लिए नवभारत की पीढ़ी सदैव उनकी ऋणी बनी रहेगी। वे एक महान Female Freedom Fighters of India in hindi थी, जिन्होंने महिलाओं को एक नयी पहचान दी.

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मैडम भीकाजी कामा (Madam Bhikaiji Cama)

हम सामान्य ज्ञान की पुस्तकों में यह प्रश्न अक्सर देखते हैं कि किस क्रांतिकारी ने सर्वप्रथम विदेश की धरती पर भारत का झंडा फहराया था। इस प्रश्न का उत्तर है, भीकाजी रुस्तम कामा यानि मैडम कामा। आइए जानते हैं, मैडम कामा के जीवन के कुछ पहलुओं के बारे में।

 मैडम कामा ने एक प्रसिद्ध व्यापारी सोराबजी पटेल के घर सन 1861 को जन्म लिया।सन 1885 में इनका विवाह समाज सुधारक रुस्तम जी कामा से हो गया था ।मैडम कामा एक संवेदनशील महिला थीं।देश से दूर रहने के बावजूद भारतीयता सदैव उनके हृदय में धड़कती थी।भारत की सीमाओं से कोसों दूर बैठकर भी वह देश में चल रही स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधियों में रुचि रखती थीं । उन्होंने लंदन ,जर्मनी ,अमेरिका आदि देशों का भ्रमण कर भारत के पक्ष में माहौल बनाने की चेष्टा की थी। 22 अगस्त 1907, वह स्वर्णिम दिन था जब भीकाजी कामा ने अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस में भारत का झंडा फहराया था। इससे संपूर्ण भारत भर में गर्व और गौरव की अनुभूति का संचार हुआ था। मैडम कामा ने यह झंडा विनायक दामोदर सावरकर और श्यामजी कृष्ण वर्मा की मदद से खुद ही तैयार किया था।भारत किसी सिंधु की भांति आचरण करता है और इसमें पल रहीं विचारधाराओं ने इसकी सरिताओं का रूप ले रखा है, इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए उन्होंने इस झंडे का स्वरूप निर्धारित किया था। सन1896 में भीकाजी कामा मुंबई में फैले प्लेग के समय मरीजों की सेवा कर रही थीं।इसी दौरान वह खुद भी बीमारी की चपेट में आ गईं ।इसके बाद उन्हें यूरोप जाने की सलाह मिली, जिसके बाद 1906 में उन्होंने लंदन में रहना शुरू किया ।फिर उनका मिलना कई क्रांतिकारियों से हुआ।

वह दादा भाई नौरोजी की निजी सचिव भी रहीं । हॉलैंड में अपने सहयोगियों के साथ मिलकर उन्होंने कई क्रांतिकारी रचनाओं को प्रकाशित किया और लोगों तक पहुंचाया ताकि उनकी चेतना में आजादी को लेकर जागृति भरी रहे। ब्रिटिश सरकार उनके इस दमखम को देखकर लगभग बौखला सी गई थी। उनकी भारत की संपत्ति को ज़ब्त कर लिया गया और उन्हें भारत आने से रोक दिया गया ।

भारत के क्रांतिकारी Female Freedom Fighters of India in hindi उन्हें माता के समान पूजनीय मानते थे, जबकि अंग्रेज उन्हें एक कुख्यात महिला के तौर पर देखते थे। भीकाजी कामा का जीवन स्वतंत्रता, समता और सशक्तिकरण को समर्पित रहा। सन 1936 में मुंबई के पास ही जनरल अस्पताल में इस महान महिला ने अंतिम साँसें लीं। कहते हैं, आखिरी शब्द जो उनके मुख से निकले थे, वो थे ‘वंदे मातरम’। अपने देश के प्रति प्रबल प्रेम रखने वाली इस बहादुर महिला ने कभी भी देशप्रेम को स्पष्ट करने में कोई संकोच नहीं दिखाया। उनका जीवन हमें इस बात कि प्रेरणा देता है कि अपने स्तर पर जो भी बन पड़े हमें अपनी मातृभूमि के लिए अवश्य करना चाहिए ।कठिनाई और विषमताओं का आना-जाना तो लगा रहता है पर देश का हित और अस्मिता सर्वोपरि मानी जानी चाहिए।

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 प्रीतिलता वाडेकर (Pritilata Waddedar)

देश के लिए शहीद होने का अधिकार केवल पुरुषों का नहीं। इस तथ्य को रौशन करते हुए कई जिंदादिल और दिलेर महिलाओं ने अपने प्राणों की आहुति दी है। उनका दमखम देख अंग्रेजी हुकूमत थर्रा सी गई थी। Female freedom fighters of india in hindi में प्रीतिलता का नाम भी शामिल है.

उन्हीं में से एक हैं, प्रीतिलता वाडेकर। प्रारंभिक जीवन की बात करें तो उनके पिता नगरपालिका में काम किया करते थे। प्रीति का जन्म चटगांव के एक परिवार में हुआ था। अपने स्कूली जीवन में ही वह सेवा की भावना से ओत-प्रोत हो चुकी थीं। जब वह बालचर संस्था की सदस्या थीं तब उन्हें अंग्रेजी सरकार के प्रति नतमस्तक रहने की शपथ हमेशा खटकती थी। इस प्रकार उनके बाल मन में क्रांति का अंकुर उत्पन्न हुआ। आगे चलकर अपने परिवार की मदद करने के लिए उन्होंने एक स्कूल में नौकरी शुरू की। परंतु वह कहते हैं ना जब मनुष्य के हृदय में ‘परहित’ का उद्घोष प्रबल हो जाता है तो वह सिर्फ अपना हित नहीं अपितु अपने पूरे देश का हित सोचता है। प्रीति ने भी देशहित की ओर चलनेवाली राह पकड़ ली।उस स्कूल में नौकरी करने के दौरान प्रीति की भेंट प्रसिद्ध क्रांतिकारी सूर्यसेन से हुई। इसके उपरांत प्रीति उनके दल की सदस्या बन गईं ।

 आगे चलकर क्रांतिकारी सूर्यसेन को प्रीति की सूझबूझ और बुद्धिमत्ता पर भरोसा हुआ। बाद में वह इंडियन रिपब्लिक आर्मी में महिला सैनिक के तौर पर शामिल हुईं ।सूर्यसेन ने हीं उन्हें  पिस्तौल आदि चलाने का तरीका सिखाया था। सन 1932 के 24 सितंबर को सूर्यसेन ने उन्हें एक जोखिम भरा काम करने की जिम्मेदारी सौंपी।

 वह काम था एक यूरोपियन क्लब पर हमला। प्रीतिलता अपने साथियों के साथ अपना भेष बदलकर उस क्लब में घुस गईं ।वहाँ उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर बम फोड़े। क्लब में चारों ओर भय का माहौल हो गया । हमले के बाद प्रीति ने अपने साथियों को क्लब से बाहर भेजा पर जब उन्होंने खुद पाया कि गिरफ्तारी से बचने का कोई रास्ता नहीं है तो उन्होंने अपने लिए एक कठोर फैसला लिया। पोटैशियम सायनाइड की गोली खाकर प्रीति ने मौत का आलिंगन कर लिया। कहा जाता है उनके मृत शरीर के पास से एक पर्चा मिला था जिसमें उनकी लिखावट में लिखा था ‘आज महिलाएँ और पुरुष दोनों एक ही लक्ष्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो दोनों में फर्क क्यों ?’इस कथन से उन्होंने थोथी- गली परंपराओं पर एक चांटा मारा जो आज भी महिलाओं को समुचित अधिकार और सम्मान देने में कतराती हैं । आज के समय में जब छोटी सी उम्र में हम ठीक से अपनी जिम्मेदारी नहीं उठा पाते तब उसी अवस्था में प्रीति ने देश को गौरवान्वित करने का जिम्मा उठाया था। हमारा समाज प्रीतिलता जैसी बहादुर महिलाओं का ऋणी,सदैव बना रहेगा। 

मातंगिनी हज़रा (Matangini Hazra in hindi)

मातंगिनी हज़रा का जन्म सन 1869 में हुआ था।भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वालीं मातंगिनी का जन्म मिदनापुर जिले में हुआ था। 12 वर्ष की आयु में उनका विवाह 62 साल के एक विधुर से कर दिया गया। विवाह के 6 वर्ष बाद उनके पति का निधन हो गया। उनके सौतेले पुत्र ने उन्हें काफी तकलीफ़ दी।तब मातंगिनी एक अलग झोपड़ी में घर से दूर रहने लगीं। वो अपनी गुजर-बसर के लिए मजदूरी किया करतीं।

मातंगिनी महात्मा गांधी से बहुत प्रभावित थीं।सन 1932 के आंदोलन के समय एक जुलूस मातंगिनी के घर के पास से गुजर रही थी तो उन्होंने अपनी परंपरा को निभाते हुए उस जुलूस का शंखनाद से स्वागत किया था और आजीवन स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रतिबद्ध रहने का प्रण लिया। स्वतंत्रता संग्राम का नशा उनके सिर पर कुछ इस तरह सवार हुआ कि वह अपनी अफीम की लत भी भूल गईं। वंदे मातरम का उद्घोष उनके मानस पटल पर सदैव के लिए अंकित हो चला था। सन 1933 में करबंदी आंदोलन के समय बंगाल के तत्कालीन गवर्नर एंडरसन जब तामलुक आए थे तो उनके ख़िलाफ़ काफी ज़ोरदार प्रदर्शन हुआ। मातंगिनी ने भी इस प्रदर्शन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। अपना विरोध दिखाने के लिए उन्होंने एक काला झंडा लिया और सबसे आगे जाकर नारेबाज़ी की। इसके परिणाम स्वरूप उन्हें मुर्शिदाबाद की जेल में 6 महीने का सश्रम कारावास मिला। स्वतंत्रता आंदोलन के साथ Female freedom fighters of india in hindi मातंगिनी का प्रथम साक्षात्कार सन 1930 में हुआ था जब उनके गांव के कुछ युवकों ने इस आंदोलन में भाग लिया।

मातंगिनी ने नमक सत्याग्रह में भी भाग लिया था परंतु अपनी वृद्धावस्था के कारण कारावास से बच गईं।उन्होंने तामलुक की एक कचहरी में तिरंगा फहरा दिया था जिसके कारण उन्हें इतनी मार पड़ी कि उनके मुंह से खून निकलने लगा था।

 ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय मातंगिनी की उम्र लगभग 72 वर्ष की थी किंतु उन्होंने इसे किसी रुकावट के तौर पर कभी नहीं आने दिया।जब आंदोलन के दौरान वहाँ के लोगों ने अदालत ,थाना अन्य सरकारी कार्यालयों को नियंत्रण में लेने की योजना बनाई तो मातंगिनी ने वीरता दिखाते हुए उस जुलूस का नेतृत्व किया ।

 29 सितंबर सन 1942 को लोगों ने पुलिस लाइन को कब्जे में लेने का सोचा तब मातंगिनी उस जुलूस में सबसे आगे रहना चाहती थीं किंतु पुरुष प्रदर्शनकारियों ने एक महिला के जीवन को संकट में डालना उचित नहीं समझा। पर जैसे ही पुलिस ने गोलीबारी शुरू की, मातंगिनी सबसे आगे आ गईं। उन्होंने तिरंगा हाथ में हाथ में थाम कर रखा था। पुलिस ने वहाँ गोलियां बरसाईं। सबसे पहली गोली मातंगिनी के पैर पर लगी ।लेकिन वह फिर भी आगे बढ़ती जा रही थीं ।दूसरी गोली हाथ की ओर दागी गई। पर तिरंगा फिर भी उनके हाथ से नहीं छूटा। तीसरी गोली उनके सीने पर लगी और इस तरह भारत माता की बहादुर बेटी उनके चरणों में शहीद हो गई ।

 हम अक्सर अपने जीवन में आई छोटी-मोटी परेशानियों से व्याकुल हो जाते हैं परंतु मातंगिनी हज़रा का जीवन इस बात का परिचायक है कि भले ही हमें कितनी भी विपत्ति का सामना करना पड़े अपने आत्मसम्मान और स्वाबलंबन के साथ कभी भी समझौता नहीं करना चाहिए। मातृभूमि का सम्मान अपना सम्मान होता है अतएव धरती मां के श्री चरणों की सेवा के लिए हमें सदैव तत्पर होना चाहिए ।जिस तरह मातंगिनी ने अपनी वृद्धावस्था और गरीबी को इस आंदोलन के बीच रुकावट नहीं बनने दिया उसी प्रकार हमें अपने जीवन में आई परेशानियों और कमियों को नजरअंदाज़ कर एक बड़े लक्ष्य की ओर अग्रसर रहना चाहिए।

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बीना दास (Bina Das Female Freedom Fighters of India in hindi)

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सिंहनाद करती वीरांगनाओं का हर प्रसंग प्रेरणा का एक श्रोत है। उन्होंने ना ही कठोर परिस्थितियों के समक्ष हथियार डाले और ना ही कभी ‘ नारीत्व को कम आंकने वाली सोच से प्रभावित हो स्वयं पर संदेह की धूप डाली। जब भी किसी स्थिति, संसाधन,स्थान,व्यक्ति,लाभ आदि का बल उन्हें मिला, उन्होंने देश के हित और गरिमा को बनाए रखने के लिए उनका भरपूर प्रयोग किया। बलिदान, त्याग, परोपकार, परमार्थ जैसे प्रभावशाली शब्द कर्णपटल पर अति मनोरम जान पड़ते हैं, किंतु यथार्थ की भू पर इन  से अलंकृत होना इतना सरल नहीं। हमारा स्वर्णिम इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि विषमताओं को भी ढाल जिन्होंने बनाया है, माटी का मोल उन्होंने ही चुकाया है। 

इन्हीं तथ्यों को चरितार्थ करती जीवनी है, बीना दास की। उनका जन्म सन 1911, 24 अगस्त को कृष्णानगर,बंगाल में हुआ था। उनके पिता का नाम बेनी माधव दास था और वो एक सुप्रसिद्ध शिक्षक थे। इनके पिताजी ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भी पढ़ाया था। इनकी माता भी एक परोपकारी महिला थीं। वो सामाजिक कार्यों में रुचि रखती थीं, जिसका असर बीना पर भी हुआ। बीना का संपूर्ण परिवार देशहित के कामों में लगा रहता था। उनकी प्रगतिशील विचारधारा का असर बीना पर बाल्यकाल से ही रहा। सन 1928 में उन्होंने बेथुन कॉलेज में पढ़ाई के दौरान साइमन कमीशन के खिलाफ धरना दे दिया था।

आगे चल कर उनका संपर्क युगांतर दल से हुआ। उन दिनों क्रांतिकारियों के द्वारा अंग्रेजों पर गोली चला कर ये दिखाया जाता था कि भारतीयों के हृदय में उनकी दमनकारी नीतियों के लिए कितनी घृणा है। इसी विचार को दिखाने के लिए 6 फरवरी, 1932 को अपने दीक्षांत समारोह में बीना दास ने बंगाल के गवर्नर स्टेनली जैक्सन पर गोली चला दी थी। जरा सोचिए, आज जिस उम्र में हम अपनी जिम्मेदारी ठीक से उठा नहीं पाते, उस उम्र में बीना ने कितना जोखिम उठाया होगा। गवर्नर भले ही बच गया पर बीना पर मुकदमा चला कर उन्हें नौ वर्षों का कठोर कारावास मिला।

पुलिस ने उन पर कितनी यातनाएं की, पर अपने साथियों का नाम उन्होंने कभी नहीं लिया। सन 1937 में उनकी रिहाई तब हुई जब प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बनी। आगे चल कर बीना ने भारत छोड़ो आंदोलन में भी सक्रियता दिखाई जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें नज़रबंद कर दिया गया था। गांधी जी की नौआखली यात्रा के समय भी बीना की भागीदारी देखने को मिली थी। बीना का संपूर्ण जीवन इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि देश में हो रहे अन्याय पर मूक दर्शक बन के रहना किसी पापकर्म के समान है। आपकी अवस्था कोई भी हो, परंतु देश के प्रति जागरूकता आपका प्रथम कर्तव्य होना चाहिए। देश की इस वीरांगना का देहावसान 26 दिसंबर सन 1986 को ऋषिकेश में हुआ। हमारा भारत Female freedom fighters of india in hindi और उन जैसे असंख्य बलिदानियों का ऋणी है जिन्होंने देश के प्रति कर्तव्यनिष्ठ हो कर अपना जीवन समर्पित कर दिया।

FAQ

भारत की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी कौन है?

रानी लक्ष्मीबाई

महिला स्वतंत्रता सेनानियों के नाम क्या हैं?

बीना दास, सावित्रीबाई फुले, मातंगिनी हज़रा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की क्या भूमिका थी?

स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था, और सभी तरीकों से स्वतंत्रता की लड़ाई में योगदान दिया था.

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